जीवन में जो कुछ भी सद्गुरू से मिलता है उसकी किसी भी अन्य वस्तु से तुलना नहीं हो सकती। जैसे गंगाजी के प्रवाह की किसी छोटे-मोटे नदी-नाले से तुलना नहीं हो सकती।
सद्गुरू ने क्या दिया? वो दिया जो अलौकिक है। आप विश्व भर के सन्त-महात्माओं और ऋषियों के बिना इस संसार को देखो कि फिर वो कैसा है। अगर महर्षि कपिल, कणाद नहीं हैं, अगस्त ऋषि की परम्परा नहीं है, अगर वसिष्ठ जी और विश्वामित्र जी नहीं हैं, बाबा तुलसीदास नहीं हैं, दादू नहीं हैं, पल्टू नहीं हैं, बाबा गुरूनानक देव नहीं हैं, अगर समर्थ गुरू रामदास नहीं हैं, यदि रामकृष्ण परमहंस ना हों, तो फिर देखो कि ये संसार कैसा होता? ऋषि-मुनियों की परम्परा को अलग कर दो तो फिर संसार कुछ और ही दिखाई देगा। तब संसार दुःख और हताशा जीवन निकल गया तो जीने का ढंग आया जब शमां बुझ गई तो महफिल में रंग आया मन की मशीनरी ने तब ठीक चलना सीखा जब बूढ़े तन के हरेक पुर्जे में जंग आया गाड़ी निकल गई तब घर से चला मुसाफिर मायूस हाथ मलता बेरंग घर को आया फुर्सत के वक्त में ना सुमिरन का वक्त मांगा उस वक्त, वक्त मांगा, जब वक्त तंग आया आयु ने नत्थासिंह जब हथियार फेंक डाले यमराज फौज लेकर करने को जंग आया।
परन्तु यदि जीवन में सद्गुरू का पर्दापण हो गया, तब प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। अपने नहीं अपितु सद्गुरू के अनुभवों से सीखो। दुःखों का कारण कोई बाहरी नहीं बल्कि तुम्हारे अन्तर्मन में बैठी हज़ारों तमन्नाएँ हैं। आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के शोर में कहीं पैर टिकाने की जगह नहीं है तुम्हारे भीतर। पहले कहते थे कि दीदी माँ, हमारे मित्र और बंधु हमें बहुत प्यार करते हैं। लेकिन आजकल मुँह क्यों लटकाये घूमते ‘भाई? क्योंकि अब पहले जैसा धंधा नहीं चल रहा इसीलिए सारे रिश्ते-नाते दूर हो गए।
एक नेताजी चुनाव हार गए। हमने उनका हाल देखकर पूछा कि ‘भाई, इतने ‘श्रीहीन’ क्यों दिखलाई देते हो?” वो कहने लगे कि ‘दीदी माँ, पहले इतने लोगों में घिरा रहता था, अब मेरे पास एक मक्खी भी नहीं आती।’ मैंने कहा कि ‘भाई, जब शहद ही नहीं बचा तो मक्खियाँ क्यों आएंगी तुम्हारे पास जो पहले आते थे वो तुम्हारे लिए नहीं बल्कि तुम्हारे पद की परिक्रमा करने के लिए आते थे। वह पद, जिसके कारण उनके बहुत सारे काम बन सकते थे। अब जो चले गए, उनके लिए रोओ मत और आज जो तुम्हारे साथ हैं उन्हें पहचानों वो केवल तुम्हें स्नेह करते हैं, तुम्हारे पद को नहीं जो आज तुम्हारे साथ हैं बस उन्हीं के लिए एहसास से भर जाओ। जो बेवजह केवल स्नेह के वशीभूत तुम्हारे साथ हैं, वे ही सच्चे हैं।’
अगर अपने प्रियतम को पाना है तो कहाँ से यात्रा शुरू करोगे? आप ही के मूलाधार में तो पड़ी है वो सुप्त चेतना, जिसको जाग्रत करने के बाद वो मिलेगा जिसे आप पाना चाहते हो। अन्तर्यात्रा करो। अपने अंदर पड़ी ग्रन्थियों का बेधन करो। अपने अन्तःकरण को पवित्र करो। जब यह होगा तो फिर ‘ओंकार’ का अनाहत नाद भीतर से सुनाई देगा। धन्य हो जाओगे । कृतार्थ हो जाओगे। कौन है जो तुम्हें अपनी सुप्त चेतना को जाग्रत करने का मार्ग बतायेगा? वो है सद्गुरू। वो हैं सन्तों के वचन हैं, सन्तों की वाणी। इसीलिए हमारे यहाँ बहुत ही प्यारे शब्दों से सद्गुरू को पुकारते हैं। हमारे मालिक हैं, हमारे सद्गुरू हैं, हमारे सर्वेश्वर हैं, हमारे भगवान् हैं। हमने ईश्वर को तो नहीं देखा लेकिन अपने सद्गुरू को ईश्वर से कम भी नहीं देखा। लेकिन कैसे बैठोगे गुरू के पास? उसके लिए श्रद्धा चाहिए, सबूरी चाहिए, समर्पण चाहिए, धैर्य चाहिए, कुटने-पिटने का साहस चाहिए। इसके अभाव में बहुत सारे तो छिटककर गुरू से दूर भाग जाते हैं। दुनिया क्या जाने कि हम कैसे हैं लेकिन स्वयं को अपने से अच्छा भला और कौन जान सकता है। हम जान सकते हैं अपनी श्रद्धा को अपनी निष्ठा को भाग्यशाली होते हैं वो लोग जो सद्गुरू के चरणों में केवल तत्वज्ञान पाने के लिए, निष्ठा और श्रद्धा के साथ आ बैठते हैं।
कितनों में ध्यान भटका है। क्या-क्या नहीं आता दिल में संतों ने कहा कि बहुत प्रकार के स्नान होते हैं। एक काया स्नान होता है
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– चाहे गंगा में डुबकी लगाइये अथवा बाथरूम में नल खोलकर उसके नीचे खड़े हो जाईये। दूसरा होता है मंत्र स्नान इसमें हम मंत्रों का जाप करते हुए अपनी शुद्धि करते हैं, और तीसरा मानस स्नान – यह सद्गुरू के चरण कमलों का स्मरण करते समय होता है। आपने जल से अपना तन धोया फिर मंत्र से स्नान किया और उसके बाद मानस स्नान होना चाहिए। मल-मलकर नहाते हैं लेकिन हमसे ज्यादा समय तक तो भैंसे नहाती हैं। वो हमेशा तालाबों में ही पड़ी रहती हैं! मछलियों और कछुओं जैसे जलचरों का तो जीवन ही पानी में बीतता है!
शरीर शुद्धि के साथ ही सद्गुरू के दिये गए नाम का नित्य प्रति सुमिरन और अभ्यास करो अर्थात् मानस स्नान करो। यदि इतना भी नहीं बनता तो फिर सुबह आँखें खुलते ही अपने गुरूदेव के चरणों का ध्यान करो। अपने इष्टदेव का स्मरण करो। सज्जनों, संत-महापुरुषों का स्मरण करो। कहते हो ना कि दीदी माँ, हम तो बहुत सताये हुए हैं जमाने के। किसने सताया तुम्हें? बहू बहुत सताती है, बच्चे बहुत सताते हैं, ऑफिस में बॉस ऐसा पल्ले पड़ गया जो बहुत सताता है। जो पत्नी पहले बड़ी प्यारी लगती थी वो देखते ही देखते दुष्टा स्त्री में बदल गई। अब दिन-रात सताती है। अगर तुम सताने वालों की लिस्ट बनाओगे तो वो पता नहीं कहाँ तक जाएगी।
केवल शरीर की आँखों से देखकर बात नहीं बनेगी। अपने विवेक की आँखों से देखो, अपने दिल की आँखों से देखो। यदि नहीं देख पाते इन सबसे, तो कम-से-कम अपने सद्गुरू की आँखों से ही देख लो। सच्चाई का दर्शन हो जायेगा। हम जहाँ पर राहत को तलाश रहे हैं वो रास्ता राहत का है नहीं। आज मैं कुछ लोगों से चर्चा कर रही थी कि जिंदगी के अनुभव बहुत कुछ सिखाते हैं। यदि आप समझदार हो तो फिर धीरे-धीरे आपकी अपेक्षाएँ कम होती चली जाती हैं। लोग हमें तब सताते हुए प्रतीत होते हैं जब हमें उनसे कोई आशा होती है। यदि उन आशाओं को लपेटकर एक तरफ रख दो तो फिर देखोगे कि तुम्हें कोई नहीं सता रहा। अगर हम तरीके से जिएँ तो जिंदगी का एक ऐसा मोड़ आता है जहाँ हमें समझ आ जाती है। हम जरा भी होश से यदि वस्तुओं को देखें, इंसानों को देखें, परिस्थितियों को देखें तो समझ में आ जायेगा कि सताने वाला कोई दूसरा नहीं है। संसार का कोई व्यक्ति या वस्तु आपको दुःख नहीं दे सकती। इन दुःखों को किसने खड़ा किया?
एक दिल लाखों तमन्ना,
उसपे और ज्यादा हविस।
फिर कहाँ है ठिकाना,
उसके टिकाने के लिए।
दिल का हुजरा साफ कर,
जानां के आने के लिए
बेचारा एक ही दिल तो है। लेकिन दिल है कि मानता नहीं। लंबी लिस्ट है तमन्नाओं की ये नशा चढ़ा रहेगा लंबे समय तक। लेकिन जब उतरेगा, जब होश आएगा तब पता चलेगा कि जिंदगी हाथ से सरक गई। मैं अक्सर कहा करती हूँ कि जीवन निकल गया तो जीने का ढंग आया जब शमां बुझ गई तो महफिल में रंग आया मन की मशीनरी ने तब ठीक चलना सीखा जब बूढ़े तन के हरेक पुर्जे में जंग आया गाड़ी निकल गई तब घर से चला मुसाफिर मायूस हाथ मलता बेरंग घर को आया फुर्सत के वक्त में ना सुमिरन का वक्त मांगा उस वक्त, वक्त मांगा, जब वक्त तंग आया आयु ने नत्थासिंह जब हथियार फेंक डाले यमराज फौज लेकर करने को जंग आया।
परन्तु यदि जीवन में सद्गुरू का पर्दापण हो गया, तब प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। अपने नहीं अपितु सद्गुरू के अनुभवों से सीखो। दुःखों का कारण कोई बाहरी नहीं बल्कि तुम्हारे अन्तर्मन में बैठी हज़ारों तमन्नाएँ हैं। आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के शोर में कहीं पैर टिकाने की जगह नहीं है तुम्हारे भीतर। पहले कहते थे कि दीदी माँ, हमारे मित्र और बंधु हमें बहुत प्यार करते हैं। लेकिन आजकल मुँह क्यों लटकाये घूमते ‘भाई? क्योंकि अब पहले जैसा धंधा नहीं चल रहा इसीलिए सारे रिश्ते-नाते दूर हो गए।
एक नेताजी चुनाव हार गए। हमने उनका हाल देखकर पूछा कि ‘भाई, इतने ‘श्रीहीन’ क्यों दिखलाई देते हो?” वो कहने लगे कि ‘दीदी माँ, पहले इतने लोगों में घिरा रहता था, अब मेरे पास एक मक्खी भी नहीं आती।’ मैंने कहा कि ‘भाई, जब शहद ही नहीं बचा तो मक्खियाँ क्यों आएंगी तुम्हारे पास जो पहले आते थे वो तुम्हारे लिए नहीं बल्कि तुम्हारे पद की परिक्रमा करने के लिए आते थे। वह पद, जिसके कारण उनके बहुत सारे काम बन सकते थे। अब जो चले गए, उनके लिए रोओ मत और आज जो तुम्हारे साथ हैं उन्हें पहचानों वो केवल तुम्हें स्नेह करते हैं, तुम्हारे पद को नहीं जो आज तुम्हारे साथ हैं बस उन्हीं के लिए एहसास से भर जाओ। जो बेवजह केवल स्नेह के वशीभूत तुम्हारे साथ हैं, वे ही सच्चे हैं।’
अगर अपने प्रियतम को पाना है तो कहाँ से यात्रा शुरू करोगे? आप ही के मूलाधार में तो पड़ी है वो सुप्त चेतना, जिसको जाग्रत करने के बाद वो मिलेगा जिसे आप पाना चाहते हो। अन्तर्यात्रा करो। अपने अंदर पड़ी ग्रन्थियों का बेधन करो। अपने अन्तःकरण को पवित्र करो। जब यह होगा तो फिर ‘ओंकार’ का अनाहत नाद भीतर से सुनाई देगा। धन्य हो जाओगे । कृतार्थ हो जाओगे। कौन है जो तुम्हें अपनी सुप्त चेतना को जाग्रत करने का मार्ग बतायेगा? वो है सद्गुरू। वो हैं सन्तों के वचन हैं, सन्तों की वाणी। इसीलिए हमारे यहाँ बहुत ही प्यारे शब्दों से सद्गुरू को पुकारते हैं। हमारे मालिक हैं, हमारे सद्गुरू हैं, हमारे सर्वेश्वर हैं, हमारे भगवान् हैं। हमने ईश्वर को तो नहीं देखा लेकिन अपने सद्गुरू को ईश्वर से कम भी नहीं देखा। लेकिन कैसे बैठोगे गुरू के पास? उसके लिए श्रद्धा चाहिए, सबूरी चाहिए, समर्पण चाहिए, धैर्य चाहिए, कुटने-पिटने का साहस चाहिए। इसके अभाव में बहुत सारे तो छिटककर गुरू से दूर भाग जाते हैं। दुनिया क्या जाने कि हम कैसे हैं लेकिन स्वयं को अपने से अच्छा भला और कौन जान सकता है। हम जान सकते हैं अपनी श्रद्धा को अपनी निष्ठा को भाग्यशाली होते हैं वो लोग जो सद्गुरू के चरणों में केवल तत्वज्ञान पाने के लिए, निष्ठा और श्रद्धा के साथ आ बैठते हैं।